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Tuesday 3 April 2012

अष्ट मद


अष्ट मद
ज्ञानवान हूँ ,ऋद्धिमान हूँ ,उच्च जाति कुलवान तथा !
पूज्य प्रतिष्ठा रूपवान हूँ , तपधारी बलवान तथा !
मन मे आविर्भावमान हो ,इन आठों  का आश्रय ले !
नही रहा “मद” निर्मद कहते जिनवर जिसका आश्रय ले !!

ज्ञान ,पूजा ,कूल जाति ,बल, ऋद्धि,तप और शरीर इन आठ बातों का आश्रय कर अभिमान करने को गर्व रहित आचार्य मद कहते हैं ! प्राय: प्रत्येक ही व्यक्ति अपने आपकी बुद्धिमत्ता ,अपनी कद्र ,अपना वंश , अपनी कौम ,ताकत ,धन दौलत ,अपनी तपस्या चलन और अपने शरीर के सुडौलपने को लेकर घमंड प्रकट किया करते हैं ! भले ही कोई पढ़ा ,लिखा हो या कि अनपढ़ भी क्यों न हो ,अपने को बड़ा होशियार समझता है !
अभिमान युक्त चित्त वाला जो व्यक्ति मद से अन्य धर्मात्मा जनों का तिरस्कार करता है ,वह अपने ही धर्म का अपमान करता है ,क्योंकि धार्मिक जनों के बिना धर्म निराश्रित नही रह सकता है !
अभिमानी  व्यक्ति अपने अभिमान मे आकर कर्तव्य शील इतर सभ्य मनुष्यों का अपमान करता है ! परन्तु उसे यह सोचना चाहिये कि वह उनका निरादर नही करता ,अपितु उनके बहाने से अपने आपके धर्म का निरादर कर रहा है ! अपने कर्तव्य से च्युत हो रहा है क्योंकि धर्म धर्मात्माओं को छोड़ स्वतंत्र नही होता !
क्रोध, मान ,माया ,लोभ  ये चार दुर्गुण कम या ज्यादा मात्रा मे हर मनुष्य के अंदर होते हैं ! आम आदमी क्रोध को सबसे बुरा मानता है ! लेकिन यह देखना   यह  है कि यह आता क्यों है ! जब हमारे मान या अभिमान पर चोट लगती है ,तब क्रोध का आगमन होता है !
अभिमान खास तोर पर मनुष्यों मे ,क्रोध नारकी मे ,मायाचारी पशुओं मे और लोभ का देवों मे बाहुल्य होता है !  मान मनुष्य को जकड़े रहता है ,जिसकी वजह से मनुष्य अंधा हो जाता है ! अत: मनुष्य को चाहिए सबसे पहले इसके ऊपर विजय प्राप्त करे क्योंकि इसको जीते बिना और सभी प्रयत्न व्यर्थ हैं और इस एक बुरी आदत के जीत लेने पर हर बातों मे सहज सफलता प्राप्त हो जाती है ! 
मूल रचना  :    "रत्न करंड  श्रावकाचार "मानव धर्म  आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी 
 हिन्दी व पद अनुवाद : आचार्य श्री ज्ञान सागर जी व आचार्य श्री विद्या सागर जी  


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