मेरा अपना इसमें कुछ भी नहीं .........

जो भी कुछ यहाँ लिखा है जिनेन्द्र देव और जैन तीर्थंकरों की वाणी है !

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कोई कापीराइट नहीं ..........

Tuesday 28 February 2012

उत्तम आकिंचन धर्म

           कितना दिया है ? कितना दान दे दिया ? इसका ध्यान आते ही आत्मा मे अहंकार का भाव आता है ! और कितना करना है ?कितना देना है ? यह सोचते ही आत्मा मे पुरुषार्थ का भाव जगता है !
          कहने का तात्पर्य यह है कि तुमने त्याग कर लिया है यह न सोच कर यह सोचें कि अभी कितना करना बाकी है ;तो ही आप आकिंचन धर्म कि ओर बढ़ रहे हैं ! 
         त्याग का भी  त्याग करना यह आकिंचन धर्म है ! 
         तुलसीदास जी के जीवन की एक घटना है .एक बार उनके घर मे एक चोर घुस आया ! तुलसीदास जी उस समय जाग रहे थे ! उन्हें जागता हुआ देख वह भाग खड़ा हुआ ! तुलसीदास उसे भागता हुआ देख चिंतन करने लगे  कि अगर मेरे पास धन न होता तो यह चोर अमावस्या की इस अँधेरी रात मे अपने जीवन को संकट मे डाल कर चोरी करने क्यों आता ! ज्ञानी व्यक्ति हमेशा उपादान को ही दोष देता है ! निमित्त बुद्धि उसकी होती ही नही ! सवेरा होते ही सारा धन पोटली मे बाँध कर नदी मे बहा दिया ! यह कहते हुए कि "न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी"! जब धन ही नही रहेगा तो डाकू कहाँ से और किसलिए आयेंगे ! कहते हैं उस दिन के बाद तुलसीदास मे अपनी कुटिया मे ताला नही लगाया !  
मुनि श्री 108 सुधासागर जी महाराज "दस धर्म सुधा " मे

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