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Saturday 3 December 2011

खोलें आँख विवेक की


                   खोलें आँख विवेक की
                        दो कारणों से व्यक्ति विवेकहीन होता है ,एक कारण है  आसक्ति और दूसरा है उतावली ! आसक्ति और उतावली के ही कारण मनुष्य विवेकहीन हो जाता है ,उसके विवेक की आँख पर परदा पद जाता है ,कई प्रकार की आसक्ति है धन की आसक्ति ,भोजन कि आसक्ति ,पद प्रतिष्ठा की आसक्ति ,और विषयों की आसक्ति है ! ये आसक्ति व्यक्ति की सोच को कुंठित कर देती है ! जिस व्यक्ति पर धन की आसक्ति है वह नीति न्याय की बात भूल कर सिर्फ यही सोचता है कि जैसे तैसे कैसे हो बस पैसे हों !भोजन कि आसक्ति होने पर वह पेट को नही देखेगा ,वह तो भोजन का लंपट हो जाएगा ! चाहे अत्यधिक या असेवन योग्य  भोजन के बाद उसे  दुःख ही क्यों न उठाना पड़े ! पद प्रतिष्ठा के प्रति किसी कि आसक्ति है तो वो येन केन प्रकारेन वहां पहुचने का प्रयास करता है !
         विषयासक्ति व्यक्ति को बहुत अधिक गिरा देती है ! विषयासक्ति में व्यक्ति अंधा बन जाता है !अगर चित्त किसी पर आसक्त है ,तो उस पर सारे उपदेश भी काम नही करते ,फिर वह किसी की बात नही सुनता ,एक ही बात उसके दिलोदिमाग पर छाई रहती है ,रात की नींद दिन का चैन सब खो जाता है ! रावण के मन में सीताजी के प्रति आसक्ति हुई,रावण का सर्वनाश हुआ ,जितने -२ लोगोंको किसी के प्रति आसक्ति हुई है उन सब का जीवन बर्बाद हुआ है !
        व्यक्ति के मन में किसी विषय के लिये जब आकर्षण होता है ,तो उसके प्रति आसक्ति होती है ,आसक्ति होने पर कामना पैदा होती है और कामना से क्रोध उत्पन्न होता है ,क्रोध होने के बाद उसके प्रति सम्मोहन होता है और सम्मोहन होने के उपरान्त उसकी स्मृति का नाश होने लगता है ! और जब स्मृति नष्ट होने लगती है तो बुद्धि भी नष्ट हो जाती है और व्यक्ति की बुद्धि या विवेक के नष्ट हो जाने पर व्यक्ति ही विनष्ट हो जाता है ! इसीलिये आसक्ति से बचने की प्रेरणा दी गयी है !
        आसक्ति मनुष्य को विवेकशून्य बना बंधन में डाल देती है ,जो व्यक्ति जिस पर आसक्त होता है ,उसके आकर्षण में उलझकर रह जाता है ! इसीलिये विवेकहीनता का पहला कारण आसक्ति है ,दूसरा कारण है उतावली ! उतावली में व्यक्ति धैर्य खो देता है ,जो व्यक्ति उतावला होता है वह अच्छे बुरे का निर्णय नही कर सकता ! कभी कभी तो व्यक्ति उतावली ,आवेग और आवश में व्यक्ति ऐसा कार्य कर लेता है जिसके पीछे उसे जीवन भर पछताना पड़ता है ! अत: व्यक्ति को अपने आवेग और आवेश पर नियंत्रण रखना चाहिये !  
     मुनिश्री 108 श्री प्रमाण सागर जी महाराज  की ‘दिव्य जीवन का द्वार ‘ से

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